Thursday, July 25, 2013

[IAC#RG] बदलते पत्रकारिता के सरोकार : पालागुमी साईनाथ

मेरी जानकारी में आपका यह कान्फ्रेन्स तीन दिनों का है। तीन दिनों में औसतन क्या-क्या होता है, अपने देश में? ग्रामीण भारत में तीन दिन के अंदर अगर एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के डाटा का औसत लेते हैं, तो तीन दिन के अंदर 147 किसान इस देश में आत्महत्या करते हैं। आधे घंटे में एक किसान अपनी जान देता है। जब आपका कान्फ्रेन्स खत्म होगा, उन तीन दिनों में एक सौ पचास किसान आत्महत्या कर चुके होंगे। लेकिन यह सब आपके मीडिया को देखकर नजर नहीं आता। वहां यह प्रदर्शित नहीं होता है। सबसे नया 2012 का डाटा भी आ चुका है। डाटा ऑन लाइन है। आप देख सकते हैं। छत्तीसगढ़ ने इस बार जीरो आत्महत्या  दिखलाया है, पश्चिम बंगाल ने डाटा जमा नहीं कराया है। उसके बावजूद आंकड़ा 14,000 तक आ गया है। तीन दिनों में तीन हजार बच्चे कुपोषण और भूख से जुड़ी बीमारियों से मौत के शिकार बनते हैं। इन्हीं तीन दिनों मे ंसरकार बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस को और कंपनियों को 6800 करोड़ तक की आयकर में छुट देती है। सरकार के पास पैसा, किसान और बच्चों के लिए तो है नहीं। लेकिन आप पांच लाख करोड़ रुपए की सालाना छुट दे सकते हैं। यह पांच लाख करोड़ भी पूरी कहानी नहीं है। यह पांच लाख करोड़ रुपए केन्द्र की बजट से निकलते हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों द्वारा दूसरी कई तरह की रियायतें अलग से दी जाती हैं। पांच लाख करोड़ में वह सब जुड़ा नहीं है।
बजट में एक सेक्शन है, एनेक्स-टू, उसका शिर्षक है, 'स्टेटमेन्ट ऑफ रेवेन्यू फॉरगॉन'। इसमें सारी जानकारी विस्तार से होती है। साल 2007 से यह जानकारी मिल रही है। अभी छह साल का डेटा अपने पास है। कितना पैसा कन्शेसन में गया। तीन तरह के कन्शेसन हैं, ग्रेट कन्फिलक्ट इन्कम टैक्स, कस्टम ड्यूटी वेवर और एक्साइज ड्यूटी वेवर। इन तीनों में इस साल पांच लाख करोड़ लगाए गए, इसमें सब्सिडी अलग है। यह सिर्फ केन्द्रिय बजट से दिया गया। हमारे पास यूनिवर्सल पीडीएस के लिए पैसा नहीं है, हमारे लिए स्वास्थ्य के लिए पैसा नहीं है, हमारे पास बच्चों के कुपोषण के लिए पैसा नहीं है। हमारे यहां मनरेगा 365 दिन नहीं 100 दिन का रोजगार है और पीडीएस सीमित है। इस देश में सिर्फ लूट मार ही यूनिवर्सल है। यह सब मीडिया में नजर नहीं आता।
मेरा सिर्फ इतना कहना है कि भारत में मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे के प्रभाव में है। यह मार्शल लॉ नहीं है। कोई सेंसरशिप नहीं है। मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है। लेकिन वह मुनाफे की कैद में है। यह स्थिति है मीडिया की।
एक शब्द बार-बार मीडिया में पिछले तीन सालों से आ रहा है। आप सबने सुना होगा, एंकर ने बताया होगा। क्रोनी कैपिटलिज्म। इसमें दो शब्द है, पहला कैपिटलिज्म। यह आप सब जानते हैं। दूसरा है, क्रोनी। यह क्रोनी हम हैं। मीडिया। क्रोनी कैपिटलिज्म में मीडिया क्रोनी है। यह स्थिति है मीडिया की। आप सबने पढ़ा था, अप्रैल में शारदा चिट फंड जब कॉलेप्स हो गई। उस वक्त एक खबर आई, बीच मंे फिर गायब हो गई। खबर था, सात सौ पत्रकार नौकरी से निकाले गए। मैं प्रभावित हुआ। यह खबर आ गई क्योंकि अक्टूबर 2005 से अब तक 5000 पत्रकारों की नौकरी गई है और कोई रिपोर्टिंग नहीं हुई। उस दिन एनडीटीवी ने एक इमोशनल स्टोरी किया। ये पत्रकार अब क्या करेंगे? इनका ईएमआई है। इनके बच्चे स्कूल जाते हैं। अब इनका घर कैसे चलेगा? यह सब उसी एनडीटीवी में चल रहा था, जिसने उसी महीने एनडीटीवी प्रोफीट से अस्सी लोगों को बाहर निकाला था और एनडीटीवी से 70 लोगों को बाहर निकाला था। डेढ़ से नौकरी गया एनडीटीवी के एक मुम्बई ऑफिस से। पूरे स्टेट में नहीं। एक ऑफिस में।
अक्टूूबर 2008 में जब फायनेन्सल कॉलेप्स हुआ। उस वक्त से बहुत सारी तब्दिलियां आई। मीडिया में भ्रष्टाचार तो पुरानी चीज है। कुछ नई चीज नहीं है। बुरी पत्रकारिता भी पुरानी चीज है।
कॉन्टेन्ट ऑफ जर्नालिज्म का एक उदाहरण कुछ दिन पहले देखने को मिला, जब एक बाढ़ पीड़ित के कंधे पर बैठकर एक पत्रकार रिपोर्ट कर रहा था। अगर पीड़ित पत्रकार के कंधे पर बैठता तो ठीक है। लेकिन उस रिपोर्ट में मीडिया के परजीवी होने का संकेत नजर आता है।
20 साल पहले जब हम मीडिया मोनोपॉली कहते थे तो साहूजी और जैन साहब का अखबार तीन-चार शहरों से निकलता था। भारत ऐसा देश है, जहां दो शहरों से आपका अखबार निकलता है तो आप नेशनल प्रेस बन जाते हैं। लेकिन मोनोपौली क्या था, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक थे रामनाथ गोयनका। साहू और जैन मालिक रहे। यह मोनोपॉली अब खत्म हो गया। आज मीडिया मोनोपॉली का मतलब कॉरपोरेट मोनोपॉली के अंदर मीडिया एक छोटा डिपार्टमेन्ट बन कर रह गया है। आज सबसे बड़ा मीडिया मालिक कौन है? मुकेश अंबानी। जबकि मीडिया उसका मुख्य कारोबार नहीं है। यह उसके बड़े कारोबार का एक छोटा सा डिपार्टमेन्ट है। आप मुकेश भाई को देखिए, एक साल पहले नेटवर्क 18 को खरीदा। मैं सच बता रहा हूं, उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा? इसके अलावा 22 चैनल आया इनाडू से। तेलगू चैनल छोड़कर सब बिक गया। इनाडू मीडिया में अच्छा नाम है। लेकिन इनाडू का अब असली नाम है मुकेश अंबानी। ईनाडू का चैनल देखिए, वे कोल स्कैम, कैश स्कैम को कैसे कवर कर रहे हैं? ईनाडू का फुल बके मुकेश भाई का है। टीवी 18 का फुल बुके मुकेश भाई का है। उनको नहीं पता कि उन्होंने क्या खरीदा है? यह है उनका मीडिया मोनोपॉली। रामनाथ गोयनका के मोनोपॉली की तुलना आप मुकेश भाई के एक छोटे से दूकान से भी नहीं कर सकते।
आप देखिए कॉरपोरेट स्टाइल कॉस्ट सेविंग क्या है? आप टेलीविजन चैनल में देख सकते हैं, अब समाचार चैनल में समाचार खत्म हो गया है, टॉक शो बढ़ गए हैं। टॉक शो इसलिए अधिक हो गए क्योंकि बातचीत सस्ती है। बातचीत फ्री है। मुम्बई-दिल्ली से बुलाते हैं और महीने-दो महीने के बाद हजार-डेढ़ हजार रुपए का चेक भेजते हैं। यहां सात-आठ लोगों को बिठाकर दो दिन बात करते हैं। टाइम्स नाउ थोड़ा अलग है, वहां नौ लोग बैठकर अर्णव को सुनते हैं। टॉक टीवी शो का एक गंभीर वजह यही है कि यह सस्ता पड़ता है। रिपोर्टर को गांव में भेजने में, अकाल, बाढ़ में भेजने में पैसा डालना पड़ेगा। इससे अच्छा है, पांच लोगों को बिठा दो। मुझे लगता है, मनिष तिवारी और रविशंकर प्रसाद तो हमेशा टीवी स्टूडियो में ही रहते हैं। एक स्टूडियो से निकलते हैं और दूसरे में जाते हैं।

   ( विकास संवाद के सातवें मीडिया संवाद में जैसा पत्रकार पालागुमी साईनाथ ने कहा)

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आशीष कुमार 'अंशु'

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